मनोरंजन डेस्क: बॉलीवुड की अब तक कई फिल्में ऐसी रही हैं, जिनके प्रदर्शन पर अलग-अलग राज्यों में बैन लगाया गया है. आजकल ‘द केरला स्टोरी’ को लेकर काफी चर्चा हो रही है. सबसे पहले केरल की सरकार ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाई. अब पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की सरकार ने भी ‘द केरला स्टोरी’ पर बैन लगा दिया है. फिल्म इंडस्ट्री ने इस बैन की आलोचना की है. वहीं, काफी लोग ऐसे भी हैं, जो इसे अभिव्यक्ति की आजादी का हनन बता रहे हैं. इस बीच सवाल ये उठ रहा है कि क्या राज्य सरकारों के पास सेंसर बोर्ड से पास किसी फिल्म पर बैन लगाने का कानूनी अधिकार है भी या नहीं?
भारत में फिल्मों की जांच और कुछ आपत्तिजनक पाए जाने पर काट-छांट का जिम्मा सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानी सीबीएफसी के पास है. सीबीएफसी को साल 1983 तक सेंट्रल फिल्म सेंसर बोर्ड के नाम से जाना जाता था. देश में किसी फिल्म को रिलीज करने से पहले सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट हासिल करना अनिवार्य है. इस सर्टिफिकेट के बिना देश में कहीं भी फिल्म रिलीज नहीं की जा सकती है. हालांकि, ओटीटी प्लेटफॉर्म पर फिल्म रिलीज करने के लिए ये बिलकुल जरूरी नहीं है.
सेंसर बोर्ड कैसे देता है फिल्म को सर्टिफिकेट
किसी भी फिल्म को सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट लेने में करीब दो महीने का समय लगता है. सबसे पहले सेंसर बोर्ड के ज्यूरी मेंबर फिल्म देखते हैं. अगर उनको फिल्म में कोई सीन आपत्तिजनक लगता है तो उसे काट दिया जाता है. इसके बाद बोर्ड फिल्मों को चार कैटेगरी में सर्टिफिकेट देता है. सबसे पहला ‘यू सर्टिफिकेट’, जिसका मतलब है कि इस फिल्म को किसी भी उम्र और वर्ग के लोग देख सकते हैं. इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है. फिर ‘यूए सर्टिफिकेट’ के तहत आने वाली फिल्मों को 12 साल से छोटे बच्चे अपने माता-पिता के साथ देख सकते हैं. ‘ए सर्टिफिकेट’ वाली फिल्मों को 18 साल या ज्यादा उम्र के लोग ही देख सकते हैं. वहीं, ‘एस सर्टिफिकेट’ वाली फिल्मों को डॉक्टर, साइंटिस्ट जैसे स्पेशल दर्शक ही देख सकते हैं.
क्या सेंसर बोर्ड फिल्म को कर सकता है बैन?
सीबीएफसी सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफी रूल 1983 के तहत काम करता है. लिहाजा सेंसर बोर्ड किसी भी फिल्म को बैन नहीं कर सकता. हालांकि, अगर सीबीएफसी चाहे तो किसी फिल्म को सर्टिफिकेट देने से इनकार जरूर कर सकता है. ऐसे में फिल्म किसी भी थियेटर में रिलीज नहीं की जा सकती है. अप्रत्यक्ष तौर पर कहा जाए तो यह उस फिल्म के लिए बैन जैसे हालात ही होंगे. केंद्र ने 31 मार्च 2022 को संसद के उच्च सदन में कहा था कि सीबीएफसी किसी फिल्म को बैन नहीं कर सकता, लेकिन सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952(B) के तहत दिशनिर्देशों के उल्लंघन पर सर्टिफिकेट देने से मना कर सकता है.
क्या केंद्र सरकार फिल्म बैन कर सकती है?
केंद्र सरकार चाहे तो सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952(5E) के तहत सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट जारी करने के बाद भी किसी भी फिल्म को बैन कर सकती है. जरूरत महसूस होने पर केंद्र सरकार सीबीएफसी के जारी सर्टिफिकेट को रद्द भी कर सकती है. केंद्र सरकार ने 2022 में सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव के लिए बिल भी पेश किया था. इसमें प्रावधान किया गया था कि अगर दर्शकों को किसी फिल्म पर आपत्ति है तो केंद्र सरकार उसके प्रदर्शन पर रोक लगा सकती है. ये विधेयक अभी तक पारित नहीं हुआ है.
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क्या राज्य फिल्म पर लगा सकते हैं प्रतिबंध?
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2011 में एक फैसले में कहा था कि अगर सेंसर बोर्ड ने किसी फिल्म को सर्टिफिकेट जारी कर दिया है तो कोई भी राज्य सरकार उसके प्रदर्शन पर पाबंदी नहीं लगा सकती है. तब सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ पर बैन लगाने के केस में सुनाया था. तत्कालीन यूपी सरकार ने फिल्म को बैन करने की मांग उठाई थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार का काम कानून व्यवस्था संभालना है, ना कि किसी फिल्म की आलोचना करना. अगर इस फैसले को नज़ीर माना जाए तो ‘द केरला स्टोरी’ पर लगाया गया पश्चिम बंगाल, केरल सरकारों का बैन गलत है. साफ है कि राज्य सरकारों के पास किसी भी फिल्म को बैन करने का अधिकार नहीं है.
‘द विंची कोड’ को लेकर हुआ था हंगामा
भारत में ही नहीं फिल्मों पर बैन लगाने को लेकर विदेश में भी बवाल होते रहे हैं. हॉलीवुड फिल्म ‘द विंची कोड’ को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पॉटर स्टिवर्ट के मुताबिक, अमेरिका में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग को लेकर ईसाई समुदायों ने जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया था. इस फिल्म को लेकर राजनेताओं, धार्मिक नेताओं और विशेषज्ञों के बीच काफी बहस हुई थी. इसके बाद भारत में भी 7 राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी. उनके मुताबिक, तर्क दिया गया था कि ये फिल्म ईशनिंदा के दायरे में आती है. इससे लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं. पॉटर का कहना है कि ये राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए ठीक तर्क हो सकता है, लेकिन इससे अभिव्यक्ति की आजादी का हनन होता है. बता दें कि ये फिल्म डैन ब्राउन के 2003 में प्रकाशित बेस्टसेलिंग नॉवेल पर आधारित थी. ये फिल्म पश्चिम के ईसाई बहुल देशों में 18 मई 2006 को रिलीज हुई.
लीगल डिस्क्लेमर के साथ मिला ‘ए सर्टिफिकेट’
पूर्व जस्टिस पॉटर के मुताबिक, फिल्मों पर बैन लगाना भारत के लिए आम बात है. हालांकि, भारत की ज्यादातर अदालतों के फैसले ऐसे बैन के खिलाफ ही आए हैं. फिल्म ‘द विंची कोड’ भारत के कई राज्यों में रिलीज नहीं हो पाई, लेकिन नॉवेल की खूब बिक्री हुई. इसके बाद बहुत से कैथलिक लीडर्स और तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी के लिए फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग की गई. अंत में सीबीएफसी ने इस फिल्म को ‘ए सर्टिफिकेट’ दिया. हालांकि, बोर्ड ने सोनी पिक्चर्स को फिल्म की शुरुआत और अंत में लीगल डिस्क्लेमर डालने के लिए मजबूर किया. मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं, बल्कि फिल्म के भारत में रिलीज होने के बाद कई ईसाई संगठनों ने इसका विरोध किया था.
रंग दे बसंती और वॉटर पर लगा था सोशल बैन
यूएस सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पॉटर ने बताया कि फिल्म पर ईसाई और मुस्लिम समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहत होने का आरोप लगाया गया. इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में फिल्म ‘द विंची कोड’ के प्रदर्शन और नॉवेल की बिक्री पर पूरी तरह से रोक लगाने की मांग के साथ जनहित याचिका दायर कर दी गई, जिसे खारिज कर दिया गया. इसके बाद आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु उच्च न्यायालयों ने भी राज्यों में फिल्म के प्रदर्शन पर लगाए गए बैन को हटवा दिया. बता दें कि इसी तरह से गुजरात में बीजेपी युवा मोर्चा ने ‘रंग दे बसंती’ पर सामाजिक प्रतिबंध लगा दिया था. इस फिल्म को तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी और तीनों सेनाओं के प्रमुखों के देखने के बाद ही पास किया गया. कुछ ऐसा ही सोशल बैन वॉटर फिल्म पर भी लगा था. साल 2000 से बननी शुरू हुई ये फिल्म 2006 में रिलीज हो पाई थी.
सीबीएफसी कर चुका है सर्टिफिकेट देने से मना
राकेश शर्मा की फिल्म ‘फाइनल सॉल्यूशन’ गुजरात में साल 2002 के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा पर आधारित थी. सेंसर बोर्ड कई महीने तक इस फिल्म को यह कहकर सर्टिफिकेट देने से इनकार करता रहा कि इसके रिलीज होने से कानून व्यवस्था को खतरा पैदा हो सकता है. बहुत ही मुश्किल से यह फिल्म अक्टूबर 2004 में रिलीज हो पाई थी. इसी तरह से फैज़ अनवर की हिंदू लड़के और मुस्लिम लड़की की प्रेम कहानी पर आधारित फिल्म ‘चांद बुझ गया’ को सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेट देने से इनकार कर दिया था. फिल्म में दिखाया गया था कि दंगों के बाद उन दोनों की जिंदगी कैसे बर्बाद हुई. बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने बोर्ड के आदेश को खारिज किया. अब तक ऐसी बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं, जिनको रिलीज कराने में डायरेक्टर-प्रोड्यूसर्स को लोहे के चने चबाने पड़ गए थे.