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उत्तराखंड के लिए आखिर क्यों अहम है जोशीमठ!

by News Desk
January 11, 2023
in Uttarakhand
उत्तराखंड के लिए आखिर क्यों अहम है जोशीमठ!
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उत्तराखंड: जोशीमठ उत्तराखंड के चमोली जिले का कस्बा है. 6150 फीट की ऊंचाई पर बसा हुआ. ज्योर्तिमठ के नाम से भी जाना जाता है. आदि शंकराचार्य का एक पीठ यहां भी है. भगवान बद्रीनाथ तक जाने का रास्ता भी यहीं से है. खैर… अभी यह धार्मिक और पर्यटन वाला शहर धंस रहा है. 81 परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है. 720 से ज्यादा इमारतों में दरारें मिली हैं, जो हर दिन चौड़ी होती जा रही हैं. आपदाओं ने इसे हर साल झकझोरा है.

साल 1976 में चेतावनी जारी की गई थी कि उत्तराखंड के जोशीमठ की भौगोलिक हालत ठीक नहीं है. सुधार के लिए विकास और प्रकृति में वैज्ञानिक संतुलन जरूरी है. लेकिन मानता कौन है? न लोग मानते हैं. न ही सरकार और प्रशासन. पहले यह समझिए कि क्या जोशीमठ ही सबसे ज्यादा खतरे में है? नहीं… पूरा का पूरा उत्तराखंड ही हिमालय के सबसे नाजुक और युवा हिस्से पर बैठा है. भूस्खलन, भूकंप, बाढ़, बादल फटना, हिमस्खलन और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं को बर्दाश्त करता आ रहा है.

असल में भारत का पूरा हिमालय बेहद नाजुक और कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है. उत्तराखंड भारतीय हिमालय के उत्तर-पश्चिम में बसा है. यहां सबसे ज्यादा नुकसान लैंडस्लाइड और भूकंपों से होता है. उत्तराखंड राज्य पूरा का पूरा भूकंप के जोन-4 और जोन-5 में आता है. वैसे 1991 उत्तरकाशी और 1999 में चमोली भूकंप के अलावा कोई बड़ा भूकंप यहां अभी तक नहीं आया है. इससे पहले सबसे भयानक भूकंप 1 सितंबर 1803 में गढ़वाल में आया था. हालांकि यहां कभी भी बड़े भूकंप के आने की आशंका जताई जाती रही है.

6150 फीट ऊंचे भूस्खलन के मलबे पर बसा है जोशीमठ
जहां तक बात रही चमोली जिले की, जिसके अंदर जोशीमठ कस्बा है, वह सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था साल 2013 में आई आपदा से. जब केदारनाथ से आई फ्लैश फ्लड ने पूरे उत्तराखंड को पानी-पानी कर दिया था. जोशीमठ भूकंप से ज्यादा भूस्खलन के प्रति संवेदनशील है. क्योंकि यह प्राचीन भूस्खलन से आई मिट्टी पर बसा कस्बा है. असल में जोशीमठ की ऊंचाई यानी 6150 फीट ऊंचाई पर कोई पहाड़ नहीं है. वह एक भूस्खलन का मलबा है, जिसपर कस्बा बसा है.

ये सबको पता है कि मलबे की मिट्टी कभी मजबूत नहीं होती. बारिश आई तो अंदर से गुफाएं बन जाती हैं. ऊपर-ऊपर पहाड़ जैसी ऊंचाई दिखेगी, लेकिन अंदर-अंदर वह खोखला हो चुका होगा, जैसे स्पॉन्ज होता है. या फिर दीमक का बमीठा, जिसमें कई छेद होते हैं. यहां तक तो चलिए समझ में आता है, लेकिन चमोली जिला पूरा का पूरा टेक्टोनिक प्लेटों में होने वाली अनियमितताओं के ऊपर मौजूद जमीन पर बसा है. यानी तेज बारिश और भूकंप दोनों से होने वाले भूस्खलन से जोशीमठ और पूरा चमोली जिला तहस-नहस हो सकता है.

उत्तराखंड के लिए जोशीमठ जरूरी क्यों हैं?
जोशीमठ भौगोलिक दृष्टि से भले ही खतरनाक है. लेकिन वह कई पर्यटन और धार्मिक स्थानों पर जाने का गेटवे है. जैसे- बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब, वैली ऑफ फ्लॉवर्स, औली, तुंगनाथ और चोपटा. अब इतने खूबसूरत जगहों पर जाने के लिए पर्यटकों को सुविधाएं चाहिए. सुविधाओं के चक्कर में अवैज्ञानिक विकास कार्य होते रहे. सड़कें बनती रहीं. होटल और गेस्ट हाउस बनते रहे. लेकिन किसी ने भी जमीन की जांच नहीं कराई. बेतरतीब निर्माण से जोशीमठ की भार सहने की क्षमता खत्म हो गई. वेस्टवाटर और बारिश के पानी के बहाव की वजह से मलबा यानी जोशीमठ की नींव कमजोर हुई.

पत्थरों की गणित बताती है जोशीमठ की कमजोरी
ऋषिकेश-बद्रीनाथ नेशनल हाइवे (NH-7) पर मौजूद जोशीमठ पूर्व से पश्चिम की ओर जा रही रिज पर मौजूद है. यह विष्णुप्रयाग से दक्षिण-पश्चिम पर है. यहीं पर धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों का मिलन होता है. लेकिन समस्या ये है कि जोशीमठ का रिज उत्तर-उत्तर-पश्चिम की ओर जा रही स्ट्रीम से कटता है. इसमें ऐसे पत्थर हैं, जो मेन सेंट्रल थ्रर्स्ट से मिलते-जुलते हैं. इनका सबूत जोशीमठ के दक्षिण में स्थित हेलांग गांव मिला है. यानी हेलांग में ऐसे पत्थरों के सामूहिक बैंड्स मिले हैं, जो क्वार्ट्ज-सेरीसाइट शिस्ट, क्लोराइट-माइका शिस्ट, गारनेटीफेरस माइका शिस्ट, पोरफाइरोब्लास्टिक, क्वार्टजाइट और एंफिबोलाइट से बने हैं. ये मिल गए हैं जोशीमठ के प्रोटेरोजोइक पत्थरों से.

समस्या ये है कि इन पत्थरों के मिश्रण का जो बैंड है वह उत्तर-पूर्व की तरफ झुका हुआ है. इसके अलावा उत्तरपूर्व-दक्षिण पश्चिम और पूर्व-पश्चिम में अधिक ऊंचाई वाले एंगल पर दो ज्वाइंट्स हैं. यानी जोशीमठ गहरे ढलान पर बसा है. पूरा का पूरा जोशीमठ अधिक वजन वाले पदार्थों से दबा पड़ा है. मिश्रा कमेटी ने 1976 में जो रिपोर्ट दी थी, उसमें भी इस बात का जिक्र था कि जोशीमठ हर साल धीरे-धीरे धंस रहा है. इसे रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए.

पिछले साल 16 से 19 अगस्त के बीच वैज्ञानिकों ने जोशीमठ की ग्राउंड स्टडी की थी. तब लोगों ने वैज्ञानिकों को बताया था कि 7 फरवरी 2021 ऋषिगंगा हादसे के बाद जोशीमठ का रविग्राम नाला और नौ गंगा नाला में टो इरोशन (Toe Erosion) और स्लाइडिंग (Sliding) बढ़ गया था. टो इरोशन यानी पहाड़ के निचले हिस्से का कटना जहां पर नदी या नाला बहता हो. स्लाइडिंग यानी मिट्टी का खिसकना.

17 और 19 अक्टूबर 2021 को हुई भारी बारिश के बाद जोशीमठ के धंसने की तीव्रता तेज हो गई थी. जमीनों और घरों में मोटी-मोटी दरारें पड़ने लगी थीं. इन तीन दिनों में जोशीमठ में 190 मिलिमीटर बारिश हुई थी. सबसे ज्यादा दरारें रविग्राम इलाके में देखने को मिली थीं. असल में जोशीमठ जिस प्राचीन मलबे पर बसा है, वो बहुत ही नाजुक है. वह रेतीले और क्ले जैसी मिट्टी और कमजोर पत्थरों के सहारे टिका हुआ शहर है.

अलकनंदा नदी जोशीमठ को नीचे से कर रही है कमजोर
अलकनंदा नदी में जहां से धौलीगंगा मिलती है, वहीं से टो इरोशन तेजी से हो रहा है. यानी जोशीमठ के नीचे की जमीन को अलकनंदा-धौलीगंगा मिलकर काट रही हैं. वह भी डाउनस्ट्रीम में. रविग्राम नाला और नौ गंगा नाला से लगातार मलबा नदी में जाता रहता है, जिसकी वजह से नदी का बहाव कई जगहों पर बाधित होता देखा गया है. इसके अलावा हाथी पर्वत से गिरने वाले बड़े-बड़े पत्थर भी अलकनंदा के बहाव को बाधित करते हैं. इसकी वजह से नेशनल हाइवे से गुजरने वाली गाड़ियों को ऊपर और नीचे दोनों तरफ से खतरा बना रहता है. कहीं ऊपर से पत्थर न आ जाए. कहीं नीचे से सड़क ही न धंस जाए.

जोशीमठ-औली रोड पर कई जगहों पर दरारें-गुफाएं बनीं
अगर ऊपर के हिस्से की बात करें, तो जोशीमठ-औली रोड पर कई जगहों पर दरारें और गुफाएं बनते हुए देखी गई हैं. बारिश के पानी के बहाव की वजह से मिट्टी खिसकने की वजह से पत्थर भी लुढ़के हैं. जिनसे ऊपरी हिस्से में दरारें बन गई हैं. इन बड़े पत्थरों के खिसकने की वजह से नीचे के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए खतरा बना रहता है. इस इलाके में कई नाले हैं, जो खुद को धीरे-धीरे फैलाते जा रहे हैं. यानी अपनी शाखाएं निकाल रहे हैं. इससे धंसाव का मामला और बढ़ेगा. क्योंकि पानी का बहाव निचले इलाकों में बदल रहा है. ऐसे में टो इरोशन की आंशका बढ़ जाती है.

जोशीमठ में कहां सबसे ज्यादा धंस रही है पहाड़ी जमीन
सबसे ज्यादा पहाड़ी जमीन धंसने का मामला रविग्राम और कामेट-मारवाड़ी नाला के बीच देखा गया है. जोशीमठ-औली रोड पर कई जगहों पर सड़कें धंसी हैं, मकानों में दरारें हैं. ये दरारें सिर्फ मकानों के नींव तक ही सीमित नहीं है. ये दीवारों से होते हुए छत और बीम तक पहुंच गई हैं. जो कि लोगों की जान के लिए खतरनाक है. सबसे ज्यादा दरारों का पड़ना और जमीन धंसने का मामला रविग्राम, सुनील गांव, सेमा और मारवाड़ी इलाके में देखने को मिल रहा है.

ऐसा क्या था जो सबसे पहले किया जाना था, जो कमियां दिखीं?
औली रोड पर बारिश का पानी सड़कों पर बहता दिखा. हर जगह ड्रेनेज सिस्टम सही नहीं था. सुनील गांव में जमीनी दबाव की वजह से पानी की पाइपें मुड़ गई थीं. जोशीमठ-औली रोड पर एक नाले का प्राकृतिक रास्ता घरों और अन्य इमारतों की वजह से रुक गया था. इस पूरे इलाके में न ही सही तरीके से सीवेज सिस्टम था. न ही बेकार पानी के डिस्पोजल का कोई सिस्टम. ज्यादा पर्यटकों की वजह से ज्यादा खपत और अधिक पानी का रिसाव जमीन के अंदर होता रहा.

लगातार पानी के रिसने की वजह से मिट्टी की परतों में मौजूद चिकने खनिज बह गए. जिससे जमीन कमजोर होती चली गई. ऊपर से लगातार हो रहे निर्माण का वजन यह प्राचीन मलबा सह नहीं पाया. 2021 में हुई धौलीगंगा-ऋषिगंगा हादसे की वजह से आए मलबे से जोशीमठ के निचले हिस्से में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर टो इरोशन बहुत ज्यादा हुआ. जिससे शहर की नींव हिल गई. इसने जोशीमठ के ढलानों को हिला दिया.

सतह में पानी का रिसना, प्राकृतिक ड्रेनेज से मिट्टी का अंदर ही अंदर कटना, तेज मॉनसूनी बारिश, भूकंपीय झटके, बेतरतीब और अवैज्ञानिक तरीके से होता निर्माण कार्य ही इस जोशीमठ के नाजुक ढलान को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार हैं. आप किसी बाल्टी में उसकी सीमा से ज्यादा पानी नहीं भर सकते. पहाड़ों के साथ भी यही है.

ढलान की मजबूती को बनाए रखने के लिए पोर प्रेशर (Pore Pressure) कम करना था. यानी पानी का रिसना कम करना चाहिए था. अगर पानी ढलान के अंदर कम जाएगा तो वह खोखला नहीं होगा. जिस स्थानों पर पानी जमा होता है, जैसे खेल के मैदान, पार्किंग, लॉन, किचन गार्डेन… इनसे पानी निकालना जरूरी है. सभी ओपन सरफेस को पहचान कर उनपर क्ले की चादर बिछानी चाहिए थी, ताकि पानी रुके नहीं.

सड़कों, पैदल मार्गों और गलियों का निर्माण ऐसा होना चाहिए था कि धंसाव के समय ज्यादा नुकसान न हो. ड्रेनेज सिस्टम को हर हाल में सुधारना जरूरी था. रूटीन मेंटेनेंस और रिपेयरिंग होती रहनी चाहिए थी. रविग्राम से लेकर कामेट-मारवाड़ी तक सबसे ज्यादा धंसाव है. इसलिए रविग्राम, नौ गंगा, कमद-सेमा, तहसील चुनार और कामेट-मारवाड़ी नालों को ड्रेनज सिस्टम ग्रेडेड करना चाहिए था. उन्हें पक्का करके उनका बहाव सही करना चाहिए था. नालों के आसपास होने वाले निर्माणों को तुरंत रोक देना चाहिए था. यानी रविग्राम, सुनील और गांधीनगर इलाके में नालों के आसपास कोई निर्माण नहीं होना चाहिए था. जो लोग डेंजर जोन में हैं, उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाना चाहिए था.

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